तुम नदी के उस किनारे
और मैं इस पार बैठा
यूँ हमारे बीच कोई खास तो दूरी नहीं है
तैरना भी जानता हूँ, ये भी मज़बूरी नहीं है
नाव है, पतवार है, उद्दिग्न है मन भी मिलन को
पर तुम्हारी टेर में आमंत्रणा पूरी नहीं है
है अहं जिद पर अड़ा
मन कर रहा मनुहार बैठा
क्या तुम्हें अब याद है, हम तुम मिले थे जिस लगन में
क्या भयानक रात थी, चपला चमकती थी गगन में
फिर अचानक थरथराकर तुमने मेरा हाथ थामा
सौ बिजलियाँ लपलपाकर आ गिरी थीं मेरे मन में
तुम हँसी पलकें झुकाकर
और मैं मन हार बैठा
साक्षी भी रह चुके हैं यह नदी के दो किनारे
उन पलों के जो कभी हमनें यहीं मधुमय गुजारे
पर न अपने मान को तुम त्याग पाई और न मैं
प्रेम की नवबेल चढ़ पाई न दोनों के सहारे
इसलिए यह रास्ता पग-पग हुआ दुश्वार बैठा
तुम नदी के उस किनारे
और मैं इस पार बैठा
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