Friday, September 21, 2018

गीत ~ चंद्रेश शेखर


तुम नदी के उस किनारे
और मैं इस पार बैठा

यूँ हमारे बीच कोई खास तो दूरी नहीं है
तैरना भी जानता हूँ, ये भी मज़बूरी नहीं है
नाव है, पतवार है, उद्दिग्न है मन भी मिलन को
पर तुम्हारी टेर में आमंत्रणा पूरी नहीं है

है अहं जिद पर अड़ा
मन कर रहा मनुहार बैठा

क्या तुम्हें अब याद है, हम तुम मिले थे जिस लगन में
क्या भयानक रात थी, चपला चमकती थी गगन में
फिर अचानक थरथराकर तुमने मेरा हाथ थामा
सौ बिजलियाँ लपलपाकर आ गिरी थीं मेरे मन में

तुम हँसी पलकें झुकाकर
और मैं मन हार बैठा

साक्षी भी रह चुके हैं यह नदी के दो किनारे
उन पलों के जो कभी हमनें यहीं मधुमय गुजारे
पर न अपने मान को तुम त्याग पाई और न मैं
प्रेम की नवबेल चढ़ पाई न दोनों के सहारे

इसलिए यह रास्ता पग-पग हुआ दुश्वार बैठा
तुम नदी के उस किनारे
और मैं इस पार बैठा

~ चंद्रेश शेखर

Tuesday, September 18, 2018

पाँच कविताएँ - सर्वेश्वर दयाल सक्सेना



1.

एक-दूसरे को बिना जाने
पास-पास होना
और उस संगीत को सुनना
जो धमनियों में बजता है
उन रंगों में नहा जाना
जो बहुत गहरे चढ़ते-उतरते हैं

शब्दों की खोज शुरु होते ही
हम एक-दूसरे को खोने लगते हैं
और उनके पकड़ में आते ही
एक-दूसरे के हाथों से
मछली की तरह फिसल जाते हैं

हर जानकारी में बहुत गहरे
ऊब का एक पतला धागा छिपा होता है
कुछ भी ठीक से जान लेना
ख़ुद से दुश्मनी ठान लेना है

कितना अच्छा होता है
एक-दूसरे के पास बैठ ख़ुद को टटोलना
और अपने ही भीतर
दूसरे को पा लेना
--

2.

अब मैं कुछ कहना नहीं चाहता
सुनना चाहता हूँ
एक समर्थ सच्ची आवाज़
यदि कहीं हो

अन्यथा
इससे पूर्व कि
मेरा हर कथन
हर मंथन
हर अभिव्यक्ति
शून्य से टकराकर फिर वापस लौट आए
उस अनंत मौन में समा जाना चाहता हूँ
जो मृत्यु है

'वह बिना कहे मर गया'
यह अधिक गौरवशाली है
यह कहे जाने से --
'कि वह मरने के पहले
कुछ कह रहा था
जिसे किसी ने सुना नहीं।'
--

3.

सब कुछ कह लेने के बाद
कुछ ऐसा है जो रह जाता है
तुम उसको मत वाणी देना

वह छाया है मेरे पावन विश्वासों की
वह पूँजी है मेरे गूँगे अभ्यासों की
वह सारी रचना का क्रम है
वह जीवन का संचित श्रम है
बस उतना ही मैं हूँ
बस उतना ही मेरा आश्रय है
तुम उसको मत वाणी देना

वह पीड़ा है जो हमको, तुमको, सबको अपनाती है
सच्चाई है - अनजानों का भी हाथ पकड़ चलना सिखलाती है
वह यति है - हर गति को नया जन्म देती है
आस्था है - रेती में भी नौका खेती है
वह टूटे मन का सामर्थ है
वह भटकी आत्मा का अर्थ है
तुम उसको मत वाणी देना

वह मुझसे या मेरे युग से भी ऊपर है
वह भावी मानव की थाती है, भू पर है
बर्बरता में भी देवत्व की कड़ी है वह
इसीलिए ध्वंस और नाश से बड़ी है वह

अन्तराल है वह - नया सूर्य उगा लेती है
नये लोक, नयी सृष्टि, नये स्वप्न देती है
वह मेरी कृति है
पर मैं उसकी अनुकृति हूँ
तुम उसको मत वाणी देना
--

4.

यदि तुम्हारे घर के
एक कमरे में आग लगी हो
तो क्या तुम
दूसरे कमरे में सो सकते हो?
यदि तुम्हारे घर के एक कमरे में
लाशें सड़ रहीं हों
तो क्या तुम
दूसरे कमरे में प्रार्थना कर सकते हो?
यदि हाँ
तो मुझे तुम से
कुछ नहीं कहना है

देश कागज पर बना
नक़्शा नहीं होता
कि एक हिस्से के फट जाने पर
बाकी हिस्से उसी तरह साबुत बने रहें
और नदियाँ, पर्वत, शहर, गाँव
वैसे ही अपनी-अपनी जगह दिखें
अनमने रहें
यदि तुम यह नहीं मानते
तो मुझे तुम्हारे साथ
नहीं रहना है

इस दुनिया में आदमी की जान से बड़ा
कुछ भी नहीं है
न ईश्वर
न ज्ञान
न चुनाव
कागज पर लिखी कोई भी इबारत
फाड़ी जा सकती है
और ज़मीन की सात परतों के भीतर
गाड़ी जा सकती है

जो विवेक
खड़ा हो लाशों को टेक
वह अंधा है
जो शासन
चल रहा हो बंदूक की नली से
हत्यारों का धंधा है
यदि तुम यह नहीं मानते
तो मुझे
अब एक क्षण भी
तुम्हें नहीं सहना है

याद रखो
एक बच्चे की हत्या
एक औरत की मौत
एक आदमी का
गोलियों से चिथड़ा तन
किसी शासन का ही नहीं
सम्पूर्ण राष्ट्र का है पतन

ऐसा ख़ून बहकर
धरती में जज्ब नहीं होता
आकाश में फहराते झंडों को
काला करता है
जिस धरती पर
फौजी बूटों के निशान हों
और उन पर
लाशें गिर रही हों
वह धरती
यदि तुम्हारे ख़ून में
आग बन कर नहीं दौड़ती
तो समझ लो
तुम बंजर हो गये हो
तुम्हें यहाँ साँस लेने तक का नहीं है अधिकार
तुम्हारे लिए नहीं रहा अब यह संसार

आखिरी बात
बिल्कुल साफ
किसी हत्यारे को
कभी मत करो माफ
चाहे हो वह तुम्हारा यार
धर्म का ठेकेदार
चाहे लोकतंत्र का
स्वनामधन्य पहरेदार
--

5.

अब मैं सूरज को नहीं डूबने दूँगा
देखो मैंने कंधे चौड़े कर लिये हैं
मुट्ठियाँ मजबूत कर ली हैं
और ढलान पर एड़ियाँ जमाकर
खड़ा होना मैंने सीख लिया है

घबराओ मत
मैं क्षितिज पर जा रहा हूँ
सूरज ठीक जब पहाड़ी से लुढ़कने लगेगा
मैं कंधे अड़ा दूँगा
देखना वह वहीं ठहरा होगा

अब मैं सूरज को नहीं डूबने दूँगा
मैंने सुना है उसके रथ में तुम हो
तुम्हें मैं उतार लाना चाहता हूँ
तुम जो स्वाधीनता की प्रतिमा हो
तुम जो साहस की मूर्ति हो
तुम जो धरती का सुख हो
तुम जो कालातीत प्यार हो
तुम जो मेरी धमनी का प्रवाह हो
तुम जो मेरी चेतना का विस्तार हो
तुम्हें मैं उस रथ से उतार लाना चाहता हूँ

रथ के घोड़े
आग उगलते रहें
अब पहिये टस से मस नही होंगे
मैंने अपने कंधे चौड़े कर लिये हैं

कौन रोकेगा तुम्हें
मैंने धरती बड़ी कर ली है
अन्न की सुनहरी बालियों से
मैं तुम्हें सजाऊँगा
मैंने सीना खोल लिया है
प्यार के गीतों में मैं तुम्हें गाऊँगा
मैंने दृष्टि बड़ी कर ली है
हर आँखों में तुम्हें सपनों-सा फहराऊँगा

सूरज जायेगा भी तो कहाँ
उसे यहीं रहना होगा
यहीं हमारी सांसों में
हमारी रगों में
हमारे संकल्पों में
हमारे रतजगों में
तुम उदास मत होओ
अब मैं किसी भी सूरज को
नहीं डूबने दूँगा।

~ सर्वेश्वर दयाल सक्सेना

Monday, September 17, 2018

ग़ज़ल ~ अनुज अब्र



नदी में चाँद-सा उतरा हुआ हूँ
मैं उसकी आँख में ठहरा हुआ हूँ

खनक हीरों की हो तुमको मुबारक़
मैं इनके शोर से बहरा हुआ हूँ

नक़ाबें नोंच कर सब फेंक दी हैं
बमुश्किल अब मैं इक चेहरा हुआ हूँ

खुरचने से नहीं उतरेगा ये रंग
तेरी उम्मीद से गहरा हुआ हूँ

गुलों की साजिशों का है नतीजा
कभी ज़रखेज़ था, सहरा हुआ हूँ

इकट्ठे हो गये सब मेरे दुश्मन
मैं जिन-जिन के लिये ख़तरा हुआ हूँ

~ अनुज अब्र

Sunday, September 16, 2018

साँझ के बादल - धर्मवीर भारती


ये अनजान नदी की नावें
जादू के-से पाल
उड़ाती
आती
मंथर चाल।

नीलम पर किरनों
की साँझी
एक न डोरी
एक न माँझी
फिर भी लाद निरंतर लाती
सेंदुर और प्रवाल।

कुछ समीप की
कुछ सुदूर की
कुछ चन्दन की
कुछ कपूर की
कुछ में गेरू, कुछ में रेशम
कुछ में केवल जाल।

ये अनजान नदी की नावें
जादू के-से पाल
उड़ाती
आती
मंथर चाल।

~ धर्मवीर भारती

Tuesday, September 11, 2018

आवारा - मजाज़ लखनवी

'आवारा'



शहर की रात और मैं नाशाद-ओ-नाकारा फिरूँ
जगमगाती जागती सड़कों पे आवारा फिरूँ
ग़ैर की बस्ती है कब तक दर-ब-दर मारा फिरूँ
ऐ ग़म-ए-दिल क्या करूँ, ऐ वहशत-ए-दिल क्या करूँ

झिलमिलाते कुमकुमों की राह में ज़ंजीर-सी
रात के हाथों में दिन की मोहिनी तस्वीर-सी
मेरे सीने पर मगर चलती हुई शमशीर-सी
ऐ ग़म-ए-दिल क्या करूँ, ऐ वहशत-ए-दिल क्या करूँ

ये रुपहली छाँव ये आकाश पर तारों का जाल
जैसे सूफ़ी का तसव्वुर जैसे आशिक़ का ख़याल
आह! लेकिन कौन समझे कौन जाने जी का हाल
ऐ ग़म-ए-दिल क्या करूँ, ऐ वहशत-ए-दिल क्या करूँ

फिर वो टूटा एक सितारा, फिर वो छूटी फुलझड़ी
जाने किसकी गोद में आई ये मोती की लड़ी
हूक-सी सीने में उठ्ठी चोट-सी दिल पर पड़ी
ऐ ग़म-ए-दिल क्या करूँ, ऐ वहशत-ए-दिल क्या करूँ

रात हँस-हँस कर ये कहती है कि मयखाने में चल
फिर किसी शहनाज़-ए-लालारुख के काशाने में चल
ये नहीं मुमकिन तो फिर ऐ दोस्त वीराने में चल
ऐ ग़म-ए-दिल क्या करूँ, ऐ वहशत-ए-दिल क्या करूँ

हर तरफ़ बिखरी हुई रंगीनियाँ, रानाइयाँ
हर क़दम पर इशरतें लेती हुई अंगड़ाइयाँ
बढ़ रही हैं गोद फैलाये हुये रुस्वाइयाँ
ऐ ग़म-ए-दिल क्या करूँ, ऐ वहशत-ए-दिल क्या करूँ

रास्ते में रुक के दम लूँ मेरी आदत नहीं
लौट कर वापस चला जाऊँ मेरी फ़ितरत नहीं
और कोई हमनवा मिल जाये ये क़िस्मत नहीं
ऐ ग़म-ए-दिल क्या करूँ, ऐ वहशत-ए-दिल क्या करूँ

मुंतज़िर है एक तूफ़ान-ए-बला मेरे लिये
अब भी जाने कितने दरवाज़े है वाँ मेरे लिये
पर मुसीबत है मेरा अहद-ए-वफ़ा मेरे लिए
ऐ ग़म-ए-दिल क्या करूँ, ऐ वहशत-ए-दिल क्या करूँ

जी में आता है कि अब अहद-ए-वफ़ा भी तोड़ दूँ
उनको पा सकता हूँ मैं ये आसरा भी छोड़ दूँ
हाँ मुनासिब है ये ज़ंजीर-ए-हवा भी तोड़ दूँ
ऐ ग़म-ए-दिल क्या करूँ, ऐ वहशत-ए-दिल क्या करूँ

एक महल की आड़ से निकला वो पीला माहताब
जैसे मुल्ला का अमामा जैसे बनिये की किताब
जैसे मुफलिस की जवानी जैसे बेवा का शबाब
ऐ ग़म-ए-दिल क्या करूँ, ऐ वहशत-ए-दिल क्या करूँ

दिल में एक शोला भड़क उठ्ठा है आख़िर क्या करूँ
मेरा पैमाना छलक उठ्ठा है आख़िर क्या करूँ
ज़ख्म सीने का महक उठ्ठा है आख़िर क्या करूँ
ऐ ग़म-ए-दिल क्या करूँ, ऐ वहशत-ए-दिल क्या करूँ

मुफ़लिसी और ये मज़ाहिर हैं नज़र के सामने
सैकड़ों चंगेज़-ओ-नादिर हैं नज़र के सामने
सैकड़ों सुल्तान-ओ-ज़बर हैं नज़र के सामने
ऐ ग़म-ए-दिल क्या करूँ, ऐ वहशत-ए-दिल क्या करूँ

ले के एक चंगेज़ के हाथों से खंज़र तोड़ दूँ
ताज पर उसके दमकता है जो पत्थर तोड़ दूँ
कोई तोड़े या न तोड़े मैं ही बढ़कर तोड़ दूँ
ऐ ग़म-ए-दिल क्या करूँ, ऐ वहशत-ए-दिल क्या करूँ

बढ़ के इस इंदर-सभा का साज़-ओ-सामाँ फूँक दूँ
इस का गुलशन फूँक दूँ उस का शबिस्ताँ फूँक दूँ
तख्त-ए-सुल्ताँ क्या मैं सारा क़स्र-ए-सुल्ताँ फूँक दूँ
ऐ ग़म-ए-दिल क्या करूँ, ऐ वहशत-ए-दिल क्या करूँ

जी में आता है ये मुर्दा चाँद-तारे नोंच लूँ
इस किनारे नोंच लूँ और उस किनारे नोंच लूँ
एक दो का ज़िक्र क्या सारे के सारे नोंच लूँ
ऐ ग़म-ए-दिल क्या करूँ, ऐ वहशत-ए-दिल क्या करूँ

~ मजाज़ लखनवी


गीत ~ चंद्रेश शेखर

तुम नदी के उस किनारे और मैं इस पार बैठा यूँ हमारे बीच कोई खास तो दूरी नहीं है तैरना भी जानता हूँ, ये भी मज़बूरी नहीं है नाव है, पतव...